अब भारत में सहमति से समलैंगिक यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं है| 6 सितंबर 2018 गुरुवार के दिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है| सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार सहमति से दो वयस्कों के बीच बनाया गया यौन संबंध अपराध नहीं माना जाएगा| सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहां एलजीबीटी समुदाय के लोगों को भी संविधान में वैसे ही बराबरी का अधिकार मिला हुआ है जैसे बाकी लोगों भारतीय को मिला है|
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए 157 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता यानी IPC की धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त कर दिया| मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने एकमत से फैसला दिया है|
- सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
- धारा 377 क्या है?
- नाज़ फाउंडेशन की याचिका
- धारा 377 पर बहस दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला – 2009
- विपरीत लिंगी व्यक्तियों के अधिकार विधेयक 2014 राज्य सभा में
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का सरंक्षण) बिल 2016 बिल का सफ़र
- दुनिया के अन्य देशों में समलैंगिकता को लेकर क्या स्थिति है?
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
कोर्ट ने कहा कि ऐसे यौन संबंधों को अपराध के दायरे में रखने की धारा 377 के प्रावधान से संविधान से मिले समता और गरिमा के अधिकार का हनन होता है|शीर्ष अदालत ने सहमति से समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध की दायरे से बाहर करते हुए कहा कि यह तर्कहीन, सरासर मनमाना और बचाव नहीं किए जाने वाला है|
संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर,जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थी|
495 पेज में इस आदेश को दिया गया, इस दिए गए आदेश में कहा कि एलजीबीटी समुदाय को देश के दूसरे नागरिकों के समान ही संविधानिक अधिकार हासिल है| पीठ में लैंगिक रुझानों को जैविक घटना और स्वाभाविक बताते हुए कहा कि किसी भी आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव से मौलिक अधिकारों का हनन होता है कोर्ट ने कहा कि धारा 377 पुराने ढर्रे पर चल रहे समाज की व्यवस्था पर आधारित है| कोर्ट ने कहा कि समलैंगिकता मानसिक विकार नहीं है बल्कि यह पूरी तरह से स्वाभाविक अवस्था है|
कोर्ट ने आदेश में कहा है कि यह घोषित किया जाता है कि जहां धारा 377 में एकांत में वयस्कों की सहमति से यौन क्रियाओं को अपराध के दयारे में रखने का संबंध है तो इससे संविधान के अनुच्छेद 14 15 और 21 में प्रदत्त अधिकारों का हनन होता है हालाँकि आदेश में यह स्पष्ट किया गया है ऐसी सहमति- स्वत सहमती होनी चाहिए जो पूरी तरह स्वैच्छिक है और किसी भी तरह के दबाव से या भय से मुक्त है नैतिकता को सामाजिक नैतिकता की बेदी पर शहीद नहीं किया जा सकता और कानून के शासन के अंतर्गत सिर्फ संवैधानिक नैतिकता की अनुमति दी जा सकती है| एलजीबीटी समाज के सदस्यों को परेशान करने के लिए धारा 377 का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है जिसकी परिणति भेदभाव से होती है|- सुप्रीम कोर्ट
शीर्ष अदालत ने 2013 में सुरेश कौशल प्रकरण में दिए गए फैसले को पलट दिया 2013 में शीर्ष अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिक यौन संबंधों को फिर से अपराध की श्रेणी में शामिल किया था|
धारा 377: समलैंगिकता अपराध नहीं धारा 377 में शामिल पशुओं और बच्चों से संबंधित अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध की श्रेणी में रखने वाले प्रावधान । पहले की तरह बने रहेंगे। यानी पशुओं से यौन संबंध बनाना पूर्व की तरह ही अपराध की श्रेणी में बना रहेगा।- सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया
धारा 377 क्या है?
जो कोई भी स्वेच्छा से प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत किसी पुरूष, महिला या पशु के साथ गुदा मैथुन करता है तो उसे उम्र कैद या फिर एक निश्चित अवधि के लिये कैद जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है, की सजा होगी। इसके साथ उसे जुर्माना भी देना होगा।
फैसला सुनाते हुए इंदु मल्होत्रा ने अपने निर्णय में कहां कि सदियों तक बदनामी और बहिष्कार झेलने वाले समुदाय के सदस्यों और उनके परिवारों को राहत प्रदान करते हुए विलंब की बात को इतिहास में खेद के साथ दर्ज किया जाना चाहिए| जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि धारा 377 की वजह से एलजीबीटी समुदाय के सदस्यों को छुपकर जीने के लिए मजबूर होना पड़ा|
समलैंगिक समुदाय दुनियाभर में भेदभाव के शिकार होते रहे हैं उनके अधिकारों के लिए कई देशों में लड़ाई अपने मकाम तक पहुंची लेकिन तो कई देश लंबे वक्त तक समलैंगिक अधिकारों को लेकर चुप्पी साधे रहे| भारत में इस मसले पर सामाजिक स्तर पर जद्दोजहद तो काफी पुरानी दिखती है लेकिन कानूनी तौर पर लड़ाई हाल के वर्षों में शुरू हुई और उसकी जड़ में आईपीसी की धारा 377 मानी जाती है|
1 अप्रैल 2001 को नीदरलैंड मैं समलैंगिक विवाह का कानून बना और यह दिन समलैंगिक अधिकारों की दुनिया में इतिहास बन गई| 2001 में नीदरलैंड्स पहला ऐसा देश बना जहां समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिली, यही वह साल था जब पूरी दुनिया में समलैंगिक अधिकारों को लेकर बहस अगले चरण में पहुंच गई|
कई देशों में समलैंगिक संबंधों के पैरोकार और उन से हमदर्दी रखने वाले संगठनों ने अपने अपने यहां अधिकारों की पैरवी करनी तेज कर दी| भारत में भी समलैंगिक अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ाने की कवायद परवान चढ़ने लगी| 2001 में ही दिल्ली उच्च न्यायालय में समलैंगिक संबंधों को अपराध घोषित करने वाली आईपीसी की धारा 377 को असंवैधानिक घोषित करने की मांग किया गया|
नाज़ फाउंडेशन की याचिका
सामाजिक संस्था नाज़ फाउंडेशन ने अपनी याचिका में कहा कि धारा 377 कई लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रही है| इसी याचिका पर न्यायालय को यह तय करना था कि क्या धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 14 और 15 का अतिक्रमण करती है या नहीं| दिल्ली हाईकोर्ट में मामला करीबन 9 साल चला, इस बीच कोर्ट ने सरकार से अपना पक्ष रखने को भी कहा| जिसके जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने धारा को हटाने के पक्ष में अपना हलफनामा दिया, तो गृह मंत्रालय ने धारा 377 को बरकरार रखने की पैरवी की थी|
मामले में प्रतिवादी पक्ष को यह कहना था कि समलैंगिकता प्राकृतिक नहीं बल्कि एक मानसिक बीमारी है और इसे सुधारा जा सकता है दूसरी तरफ याचिकाकर्ताओं ने कहा कि अनुच्छेद 15 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को सेक्स के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है| जिसमें उस व्यक्ति की यौन अभिरुचि भी शामिल है, याचिकाकर्ताओं ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन करती है, जिसमें हर व्यक्ति को जीने के अधिकार की गारंटी है| इस अधिकार में सम्मान से जीवन जीना और गोपनीयता का अधिकार भी शामिल है|
याचिकाकर्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 14 की अतिक्रमण की आशंका भी जताई, जिसमें हर व्यक्ति को बिना भेदभाव के पूरा कानूनी संरक्षण मिलने का अधिकार है जो एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के बाद इस कानून के डर से उन्हें नहीं मिल पाता है| याचिकाकर्ताओं ने धारा 377 के मूल की भी बात उठाई, इस धारा को 1860 में अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था| उस वक्त इसे ईसाई धर्म में भी माना जाता था| लेकिन 1967 में समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी है| जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला याचिकाकर्ता के पक्ष में दिया था|
धारा 377 पर बहस दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला – 2009
हम घोषित करते हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जिस हद तक वह वयस्क व्यक्तियों द्वारा एकांत में सहमति से बनाए गए यौन संबंधों का अपराधीकरण करती है, संविधान के अनुच्छेद 21, 14 और 15 का उल्लंघन है।
दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया था| न्यायालय का मानना था कि धारा 377 कुछ हद तक असंवैधानिक है| लेकिन फिर भी उसे संसद में बदलने से परहेज किया है या यानि संसद इसे हटाना नहीं चाहती थी| दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को उल्ट सुप्रीम कोर्ट ने माना की धारा 377 मौलिक अधिकारों का हनन इसलिए नहीं करती क्योंकि इन पर भी नियंत्रण लगाए जा सकते हैं|
2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ ही करीब 4 साल 6 महीने तक सहमति से बना समलैंगिक यौन संबंध कानूनी रहने के बाद फिर से गैरकानूनी हो गया था| लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 6 सितंबर 2018 को दिए गए ऐतिहासिक फैसले से समलैंगिकता अपराध के दायरे से बाहर हो गया है|
समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से पहले देश में विपरीतलिंगी व्यक्तियों के अधिकारों को लेकर काफी लंबे वक्त तक बहस चली है| सरकार का दावा जहां हमेशा से यही रहा है कि संविधान सभी व्यक्तियों को बराबरी का दर्जा देता है वही हकीकत में विपरीतलिंगी व्यक्ति भेदभाव के शिकार बनते रहे हैं|
बराबरी के अधिकार का हक पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ने के बाद अभी भी इस समुदाय को सामाजिक मान्यता पाने के लिए बहुत दूर तक चलना होगा| कानूनी तौर पर कई ऐसे मुद्दे हैं जिन को लेकर इनकी लड़ाई अभी बाकी है|
अभी तक कानून के लिहाज से समलैंगिकों को शादी का अधिकार नहीं है बच्चों को गोद लेने का अधिकार नहीं है और साथ ही साथ समलैंगिक साथियों का जमीनी और दूसरी संपत्ति के अधिकारों पर भी कानून किसी भी तरीके से साफ नहीं है|
संसद में भी ट्रांसजेंडर को लेकर कई गंभीर पहल हुई 5 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले में ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के तौर पर मान्यता मिल गई थी| इसके साथ ही उन्हें ओबीसी के तहत नौकरियों में रिजर्वेशन का भी प्रावधान है|
विपरीत लिंगी व्यक्तियों के अधिकार विधेयक 2014 राज्य सभा में
- दिसंबर 2014 को राज्य स
- भा में पेश किया गया|
- अप्रैल 2015 में राज्य सभा में बहस हुई|
- राज्य सभा में सर्वसम्मति से विधेयक को मंजूरी दे दी|
- 36 साल में पहला गैर सरकारी बिल था|
विपरीत लिंगी व्यक्तियों के अधिकार विधेयक 2014 प्रावधान
- विधेयक में कुल 58 प्रावधान
- समाज में बराबरी का हक
- मानव अधिकारों की रक्षा
- आर्थिक और क़ानूनी मदद
- शिक्षा, रोज़गार म रोज़गार से जुड़ी ट्रेनिंग
- विशेषाधिकार न्यायालय
- राष्ट्रीय और राज्य आयोगों की स्थापना
ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का सरंक्षण) बिल 2016 बिल का सफ़र
- 2015 – सरकार अपना बिल लेकर आई थी|
- अप्रैल 2016 – बिल का मसौद विधि और कानून मंत्रालय के पास गया|
- जुलाई 2016 – बिल को कैबिनेट की मंजूरी दी|
- अगस्त 2016 – विधेयक लोकसभा में पेश किया गया|
- यह विधेयक लोकसभा से फिलहाल पारित नहीं हुआ है
12 नवंबर 2015 को केरल सरकार ने एक ट्रांसजेंडर नीति जारी की थी| स्टेट पॉलिसी फॉर ट्रांसजेंडर इन केरल 2015 नाम की इस नीति में लैंगिक अल्पसंख्यक समूह को सामाजिक कलंक मारने की प्रवृत्ति खत्म करने की बात कही गई थी| भारतीय समाज में किन्नरों की धार्मिक मान्यता बहुत पुरानी है लेकिन उनके सामाजिक मुद्दों की लगातार अनदेखी होती रही है|
दुनिया के अन्य देशों में समलैंगिकता को लेकर क्या स्थिति है?
समलैंगिक समुदाय के अधिकारों पर सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी लंबे समय तक चर्चा होती रही है|अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा भारत में समलैंगिक रिश्तों को मान्यता देने के बाद भारत और 125 देशों में शामिल हो गया है जहा समलैंगिकता को कानूनी मान्यता प्राप्त है| हालांकि अभी भी 72 देशों में इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है| आइए एक नजर डालते हैं दुनिया के देशों में समलैंगिकता को लेकर क्या स्थिति है?
समलैंगिकता को लेकर अमेरिका
- अमेरिका में 2013 से वयस्कों के लिए समलैंगिकता वैध है|
- सितंबर 2011 में बनी डोंट आस्क डोंट टेल नीति के तहत समलैंगिकों को देश की सैन्य सेवाओं में नौकरी करने का अधिकार है|
- साल 2017 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादियों को अपने यहां कानूनी मान्यता प्रदान की,इसके अलावा अमेरिका के कई राज्यों में समलैंगिक जोड़ों को शादी का परिवार बनाने का भी अधिकार दिया गया है|
समलैंगिकता को लेकर यूरोपीय देश
- इंग्लैंड और वेल्स में 1967 से स्कॉटलैंड में 1981 से समलैंगिकता को कानूनी मान्यता मिल चुकी है|
- 2005 में यूनाइटेड किंगडम के संविधान में समलैंगिकों पहचान देने का प्रावधान किया गया है|
- जर्मनी में संसद का ऊपरी सदन समलैंगिक लोगों से भेदभाव खत्म करने की मांग का प्रस्ताव पारित कर चुका है इस प्रस्ताव में समलैंगिक जोड़ों की शादी और को गोद लेने का अधिकार देना भी शामिल है| इससे पहले जर्मनी की संवैधानिक अदालत समलैंगिक को शादी की मान्यता दे चुकी है| जर्मनी में समलैंगिक पार्टनरशिप को पंजीकृत कराने की सुविधा है|
- डेनमार्क में समलैंगिक को व्यापक अधिकार मिले हुए हैं यहाँ समलैंगिक सेक्स 1933 से ही वैधानिक है| 1977 में यहां यौन संबंधों में सहमति की उम्र घटाकर 15 साल कर दी गई थी| 1989 से डेनमार्क में समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने का सिलसिला शुरु हुआ था| इस तरह डेनमार्क पहला देश था जिसने समलैंगिक जोड़ों को विवाहित दंपति के बराबर का दर्जा दिया|
समलैंगिकता को लेकर दुनिया में कानून (इस्लामी देश)
- इस्लामी देशों में तुर्की समलैंगिको और ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को मान्यता देता है| यह 1858 में ऑटोमन खिलाफत के समय से समान सेक्स संबंधों को मान्यता है| हालाँकि आम जीवन में ट्रांसजेंडरों के साथ भेदभाव आम है|
- बहरीन में 1976 में समान सेक्स संबंधों को मान्यता दी गई थी| हालांकि अभी भी यह क्रॉस ड्रेसिंग यानी लड़कों का लड़कियों की तरह कपड़े पहनना मना है|
- एलजीबीटी समुदाय के अधिकारियों के रक्षा के मामले में जॉर्डन का संविधान काफी गतिशील माना जाता है| 1951 में समान सेक्स संबंधों को कानूनी मान्यता मिली थी| इसके बाद यहां की सरकार ने सम्मान के नाम पर होने वाली समलैंगिकों और ट्रांसजेंडरों की हत्याओं के खिलाफ सख्त कानून बनाए थे|
समलैंगिकता को लेकर अफ़्रीकी देश
- दक्षिण अफ्रीका में समलैंगिकता, समलैंगिक जोड़ों की शादी और बच्चे को देना कानूनी हैं|
- माली उन चुनिंदा अफ्रीका देशों में शामिल है जहां एलजीबीटी संबंधों को कानूनी दर्जा मिला हुआ है| हालांकि यहां का संविधान सामाजिक स्थलों पर यौन संबंधों की मनाही करता है|
- रूस में भी समलैंगिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कोई कानून नहीं है और यहां ट्रांसजेंडरों के साथ भेदभाव है|
समलैंगिकता को लेकर भारत के पड़ोसी देश
- पड़ोसी देश चीन में 2002 में समलैंगिकता को वैध घोषित किया गया था|
- पाकिस्तान में समलैंगिक संबंधों को कानूनी या सामाजिक मान्यता नहीं है|
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